لگتا تو بہت کچھ ہے مگر کچھ بھی نہیں ہے
کیوں جاتا اُدھر ہے تو جدھر کچھ بھی نہیں ہے
लगता तो बहुत कुछ है मगर कुछ भी नहीं है
क्यों जाता उधर है तू जिधर कुछ भी नहीं है
लगता तो बहुत कुछ है मगर कुछ भी नहीं है
क्यों जाता उधर है तू जिधर कुछ भी नहीं है
کی جو طلبِ پاسِ وفا میں نے تو بولے
جاؤ ، کہیں اور جاؤ ، اِدھر کچھ بھی نہیں ہے
की जो तलब-ए-पास-ए-वफ़ा मैं ने तो बोले
जाओ, कहीं और जाओ, इधर कुछ भी नहीं है
की जो तलब-ए-पास-ए-वफ़ा मैं ने तो बोले
जाओ, कहीं और जाओ, इधर कुछ भी नहीं है
یہ مجلسِ احباب ہے یا محفلِ اعدا
جو سچ کہیں تو ہم کو خبر کچھ بھی
نہیں ہے
यह मजलिस-ए-अहबाब है या महफ़िल-ए-आदा
जो सच कहें तो हम को ख़बर कुछ भी नहीं है
यह मजलिस-ए-अहबाब है या महफ़िल-ए-आदा
जो सच कहें तो हम को ख़बर कुछ भी नहीं है
اے ہم سفر اِس پل نہ ہو رخصت کہ ترے بعد
آزار و اذیت ہے ، سفر کچھ بھی نہیں ہے
ऐ हम सफ़र इस पल न हो रुख़्सत कि तिरे बाद
ऐ हम सफ़र इस पल न हो रुख़्सत कि तिरे बाद
आज़ार-ओ-अज़िय्यत है, सफ़र कुछ भी नहीं है
اِن قیمتی قطروں کو تم ایسے نہ گنواؤ
اِن اشکوں کے آگے تو گہر کچھ بھی نہیں ہے
इन क़ीमती क़तरों को तुम ऐसे ना गंवाओ
इन अश्कों के आगे तो गुहर कुछ भी नहीं है
इन क़ीमती क़तरों को तुम ऐसे ना गंवाओ
इन अश्कों के आगे तो गुहर कुछ भी नहीं है
شاعر تو کسی کو بھی بنا دے گی وہ صورت
سمرن ترا تو اس میں ہنر کچھ بھی نہیں ہے
शायर तो किसी को भी बना देगी वह सूरत
सिमरन तिरा तो इस में हुनर कुछ भी नहीं है
शायर तो किसी को भी बना देगी वह सूरत
सिमरन तिरा तो इस में हुनर कुछ भी नहीं है