Wednesday, October 31, 2018

کرتی نہ اگر مجھ پر تنہائی اثر ایسا
ہوتا نہ شجر میرا محرومِ ثمر ایسا
करती न अगर मुझ पर तन्हाई असर ऐसा
होता न शजर मेरा महरूम-ए-समर ऐसा

اپنی ہی حکایت جب یاروں سے سنی میں نے
حیران میں نے پوچھا ، تھا کون نڈر ایسا ؟
अपनी ही हिकायत जब यारों से सुनी मैं ने
हैरान मैं ने पूछा, था कौन निडर ऐसा

اے زیست ! زمانے نے کیا تجھ پہ ستم ڈھایا
بے سود سفر پہلے بھی تھا ، نہ مگر ایسا

ऐ ज़ीस्त! ज़माने ने क्या तुझ पे सितम ढाया
बे सूद सफ़र पहले भी था, न मगर ऐसा

قربت کی گھڑی میں تم گر ملتے تکلّف سے
فرقت میں نہ لگتا پھر روشن یہ قمر ایسا

क़ुर्बत की घड़ी में तुम गर मिलते तकल्लुफ़ से
फ़ुर्कत में न लगता फिर रौशन यह क़मर ऐसा

مغلوبِ خرد تھا پر محروم نہ تھا دل سے
وہ پھیر نظر لیتا ہوتا وہ اگر ایسا

मग़लूब-ए-ख़िरद था पर महरूम न था दिल से
वह फेर नज़र लेता होता वह अगर ऐसा

مجروحِ محبّت ہے واماندۂ الفت ہے
دیوانہ ترا کیوں کر آئے نہ نظر ایسا 

मजरूह-ए-मुहब्बत है वामांदा-ए-उल्फ़त है
दीवाना तिरा क्यों कर आए न नज़र ऐसा 

زندانِ تمنّا میں صیاد کے قیدی سب
غافل تو سمجھتا تھا سمرن ہی بشر ایسا

ज़िंदान-ए-तमन्ना में सय्याद के क़ैदी सब
ग़ाफ़िल तू समझता था "सिमरन" ही बशर ऐसा

Monday, October 22, 2018

حلالِ تیغِ ستم کو بھی یاد کر جاناں
کسی بہانے تو ہم کو بھی یاد کر جاناں ۔

हलाल-ए-तेग़-ए-सितम को भी याद कर जानाँ
किसी बहाने तू हम को भी याद कर जानाँ ।

سیاہ رات دکھا دے سنوار کے زلفیں
نثارِ کاکل و خم کو بھی یاد کر جاناں ۔

स्याह रात दिखा दे सँवार के ज़ुल्फें
निसार-ए-काकुल-ओ-ख़म को भी याद कर जानाँ

اجڑ گیا تری رخصت کے بعد جانِ جہاں
ذرا وہ باغِ ارم کو بھی یاد کر جاناں ۔

उजड़ गया तिरी रुख़सत के बाद जान-ए-जहाँ
ज़रा वह बाग़-ए-इरम को भी याद कर जानाँ

خوشی سے محفلِ یاراں میں بیٹھ تو لیکن
کبھی مریضِ الم کو بھی یاد کر جاناں ۔

ख़ुशी से महफ़िल-ए-यारां में बैठ तू लेकिन
कभी मरीज़-ए-अलम को भी याद कर जानाँ

وہ سر پھرا وہی آشفتہ سر وہ دیوانہ
غلامِ روۓ صنم کو بھی یاد کر جاناں ۔

वह सर फिरा वही आशुफ्ता सर वह दीवाना
ग़ुलाम-ए-रू-ए-सनम को भी याद कर जानाँ

تجھے ہی مانگنے کے واسطے تھے ہاتھ اٹھے
گداۓ دیر و حرم کو بھی یاد کر جاناں ۔

तुझे ही माँगने के वास्ते थे हाथ उठे
गदा-ए-दैर-ओ-हरम को भी याद कर जानाँ

برستا تھا یہ جی بھر کے تمھارے ہوتے ہوۓ
یہ خشک ابرِ کرم کو بھی یاد کر جاناں ۔

बरसता था यह जी भर के तुम्हारे होते हुए
यह ख़ुश्क अब्र-ए-करम को भी याद कर जानाँ

وگرنہ کب تھا غزل گوئی تیرے بس کا کام ؟
کمالِ صحبتِ غم کو بھی یاد کر جاناں 

 ?वगरना कब था ग़ज़ल गोई तेरे बस का काम
कमाल-ए-सोहबत-ए-ग़म को भी याद कर जानाँ

Tuesday, October 16, 2018

کیا ملے گا تمہیں یہ آنسو بہانے کے ساتھ
دشتِ خلوت میں سبھی  خیمے لگانے کے ساتھ ۔

زندگی پھول ہے تو عشق ہے مٹّی جاناں
رنگ آۓ نہ فقط فصلِ گل آنے کے ساتھ۔

اب نئی یادیں بنانے سے بھی ڈر لگتا ہے
نا گوارا ہے بہت طول فسانے کے ساتھ ۔

حوضِ دل کو اسی دن خالی کیا جائے گا
بات جب ہوگی کسی یار پرانے کے ساتھ ۔

اتنی سی بات سمجھتا نہیں کیوں تو سمرن
کہ قدم اپنے بڑھا عین زمانے کے ساتھ ۔

क्या मिले गा तुम्हें ये आँसू बहाने के साथ
दश्त-ए-ख़ल्वत में सभी ख़ेमे लगाने के साथ

ज़िन्दगी फूल है तो इश्क़ है मिट्टी जानाँ
रंग आए न फ़क़त फ़स्ल-ए-गुल आने के साथ

अब नई यादें बनाने से भी डर लगता है
ना गवारा है बहुत तूल फ़साने के साथ

हौज़-ए-दिल को उसी दिन ख़ाली किया जाए गा
बात जब होगी किसी यार पुराने के साथ

इतनी सी बात समझता नहीं क्यूँ तू सिमरन
 कि क़दम अपने बढ़ा ऐन ज़माने के साथ

شکوۀ تغافل

اے نازِ نو بہار ! ترے منتظر ہیں گل اب کیا ہوا کہ باغ میں آتی نہیں ہے تو اے عندلیبِ گلشنِ جان و دل و نظر اب موسمِ بہار میں گاتی نہیں ہے تو اے...