ترے فراق میں صنم جو زخم میں نے کھائے ہیں
اُنہوں نے ہی چراغِ بزمِ زندگی جلائے ہیں
تری عنایتوں سے بڑھ کے مجھ کو کیا عزیز ہے؟
جو داغ دل نے پائے ہیں، جو درد حصے آئے ہیں
فغانِ نیم شب نے گو اثر نہ کچھ کیا مگر
پہنچ کے چرخ پر دو چار در تو کھٹکھٹائے ہیں
तिरे फिराक़ में सनम जो ज़ख़्म मैं ने खाए हैं
उन्हों ने ही चिराग़-ए-बज़्म-ए-ज़िन्दगी जलाए हैं
तिरी इनायतों से बढ़ के मुझ को क्या अज़ीज़ है?
जो दाग़ दिल ने पाए हैं, जो दर्द हिस्से आए हैं
फुग़ान-ए-नीम शब ने गो असर न कुछ किया मगर
पहुँच के चर्ख़ पर दो चार दर तो खटखटाए हैं
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